किडनी फेल (गुर्दे खराब) रोग की जानकारी और उपचार | Kidney Failure, Information and Treatment - Shreem Ayurvedic

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Thursday, July 5, 2018

किडनी फेल (गुर्दे खराब) रोग की जानकारी और उपचार | Kidney Failure, Information and Treatment


किडनी कैसे काम करती है?

किडनी एक बेहद स्पेशियलाइज्ड अंग है. इसकी रचना में लगभग तीस तरह की विभिन्न कोशिकाएं लगती हैं. यह बेहद ही पतली नलियों का अत्यंत जटिल फिल्टर है जो हमारे रक्त से निरंतर ही पानी, सोडियम, पोटैशियम तथा ऐसे अनगिनत पदार्थों को साफ करके पेशाब के जरिए बाहर करता रहता है।

यह फिल्टर इस मामले में अद्भुत है कि यहां से जो भी छनकर नली में नीचे आता है उसे किडनी आवश्यकतानुसार वापस रक्त में खींचता भी रहता है, और ऐस&ी पतली फिल्ट्रेशन नलियों की तादाद होती है? एक गुर्दे में ढाई लाख से लगाकर नौ लाख तक नेफ्रान या नलियां रहती हैं. हर मिनट लगभग एक लीटर खून इनसे प्रभावित होता है ताकि किडनी इस खून को साफ कर सके. दिन में लगभग डेढ़ हजार लीटर खून की सफाई चल रही है. और गुर्दे केवल यही काम नहीं करते बल्कि यह तो उसके काम का केवल एक पक्ष है, जिसके बारे में थोड़ा-थोड़ा पता सामान्यजनों को भी है परंतु क्या आपको ज्ञात है कि किडनी का बहुत बड़ा रोल प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेड (शक्कर आदि) तथा फैट (चर्बी) की मेटाबोलिज्म (पाचन/ चय-अपचय) में भी है. इसलिए किडनी खराब होने पर कुपोषण के लक्षण हो सकते हैं बल्कि वे ही प्रमुख लक्षण बनकर सामने आ सकते हैं. हार्मोंस के प्रभाव में भी गुर्दों का अहम रोल है. इंसुलिन, विटामिन डी, पेराथायरायड आदि के प्रभाव को गुर्दे की बीमारी बिगाड़ सकती है।

शरीर में रक्त बनाने की सारी प्रक्रिया में गुर्दों का बेहद अहम किरदार है. गुर्दे में बनने वाला इरिथ्रोपोइरिन नामक पदार्थ खून बनाने वाली बोनमैरो को (बोनमैरो को आप हड्डियों में खून पैदा करने वाली फैक्टरी कह सकते हैं) खून बनाने के लिए स्टीम्यूलेट करता है. यह न हो तो शरीर में खून बनना बंद या कम हो जाता है. इनमें बहुत-सी बातों से स्वयं डॉक्टर भी परिचित नहीं होंगे या उन्होंने कभी पढ़ा तो था पर अब याद नहीं. नतीजा कई डाक्टरों का भी इस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान नहीं जाता है कि किडनी फेल होने वाला मरीज पेशाब की शिकायत या सूजन आदि के अलावा और भी कई तरह से सामने आ सकता है.

सवाल यह है कि हमें कब सतर्क होकर Kidney का टेस्ट कराना चाहिए. कौन-से लक्षण हैं जो किडनी फेल्योर की ओर इंगित कर सकते हैं?

हमारी किडनी शरीर में संतुलन बने रखने के कई कार्यों का निष्पादन करती हैं। वे अपशिष्ट उत्पादों को फिल्टर करके पेशाब से बहार निकालते हैं एवं निष्कासन करते हैं। वे शरीर में पानी की मात्रा, सोडियम, पोटेशियम और कैल्शियम की मात्रा (इलेक्ट्रोलाइट्स) को संतुलित करते हैं। वह अतिरिक्त अम्ल एवं क्षार निकालने में मदद करते हैं जिससे शरीर में एसिड एवं क्षार का संतुलन बना रहता है।

शरीर में किडनी का मुख्य कार्य खून का शुद्धीकरण करना है। जब बीमारी के कारण दोनों किडनी अपना सामान्य कार्य नहीं कर सके, तो किडनी की कार्यक्षमता कम हो जाती है, जिसे हम किडनी फेल्योर कहते हैं।

खून में क्रीएटिनिन और यूरिया की मात्रा की जाँच से किडनी की कार्यक्षमता की जानकारी मिलती है। चूंकि किडनी की कार्यक्षमता शरीर की आवश्यकता से अधिक होती है। इसलिए यदि किडनी की बीमारी से थोड़ा नुकसान हो जाए, तो भी खून के परीक्षण में कई त्रुटि देखने को नहीं मिलती है। परन्तु जब रोगों के कारण दोनों किडनी 50 प्रतिशत से अधिक ख़राब हो गई हो, तभी खून में क्रीएटिनिन और यूरिया की मात्रा सामान्य से अधिक पाई जाती है।

क्या एक किडनी खराब होने से किडनी फेल्योर हो सकता है नहीं, यदि किसी व्यक्ति की दोनों स्वस्थ किडनी में से एक किडनी खराब हो गई हो या उसे शरीर से किसी कारणवश निकाल दिया गया हो, तो भी दूसरी किडनी अपनी कार्यक्षमता को बढ़ाते हुए शरीर का कार्य पूर्ण रूप से कर सकती है।

* किडनी फेल्योर के दो मुख्य प्रकार है :
एक्यूट किडनी फेल्योर और क्रोनिक किडनी फेल्योर। इन दो प्रकार के किडनी फेल्योर के बीच का अंतर स्पष्ट मालूम होना चाहिए।

एक्यूट किडनी फेल्योर : 
एक्यूट किडनी फेल्योर में सामान्य रूप से काम करती दोनों किडनी विभिन्न रोगों के कारण नुकसान होने के बाद अल्प अवधि में ही काम करना कम या बंद कर देती है| यदि इस रोग का तुरन्त उचित उपचार किया जाए, तो थोड़े समय में ही किडनी संपूर्ण रूप से पुन: काम करने लगती है और बाद में मरीज को दवाइ या परहेज की बिलकुल जरूरत नहीं रहती| एक्यूट किडनी फेल्योर के सभी मरीजों का उपचार दवा और परहेज द्वारा किया जाता है |कुछ मरीजों में अल्प (कुछ दिन के लिए) डायालिसिस की आवश्यकता होती है|



क्रोनिक किडनी फेल्योर : 
क्रोनिक किडनी फेल्योर (क्रोनिक किडनी डिजीज – CKD) में अनेक प्रकार के रोगों के कारण किडनी की कार्यक्षमता क्रमशः महीनों या वर्षों में कम होने लगती है और दोनों किडनी धीरे-धीरे काम करना बंद कर देती हैं| वर्तमान चिकित्सा विज्ञान में क्रोनिक किडनी फेल्योर को ठीक या संपूर्ण नियंत्रण करने की कोई दवा उपलब्ध नहीं है| क्रोनिक किडनी फेल्योर के सभी मरीजों का उपचार दवा, परहेज और नियमित परीक्षण द्वारा किया जाता है| शुरू में उपचार का हेतु कमजोर किडनी की कार्यक्षमता को बचाए रखना, किडनी फेल्योर के लक्षणों को काबू में रखना और संभावित खतरों की रोकथाम करना है| इस उपचार का उद्देश्य मरीज के स्वास्थ्य को संतोषजनक रखते हुए, डायालिसिस की अवस्था को यथासंभव टालना है| किडनी ज्यादा खराब होने पर सही उपचार के बावजूद रोग के लक्षण बढ़ते जाते हैं और खून की जाँच में क्रीएटिनिन और यूरिया की मात्रा अधिक बढ़ जाती है, ऐसे मरीजों में सफल उपचार के विकल्प सिर्फ डायालिसिस और किडनी प्रत्यारोपण है|

* नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम :
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम एक आम किडनी की बीमारी है। पेशाब में प्रोटीन का जाना, रक्त में प्रोटीन की मात्रा में कमी, कोलेस्ट्रॉल का उच्च स्तर और शरीर में सूजन इस बीमारी के लक्षण हैं।
किडनी के इस रोग की वजह से किसी भी उम्र में शरीर में सूजन हो सकती है, परन्तु मुख्यतः यह रोग बच्चों में देखा जाता है। उचित उपचार से रोग पर नियंत्रण होना और बाद में पुनः सूजन दिखाई देना, यह सिलसिला सालों तक चलते रहना यह नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम की विशेषता है। लम्बे समय तक बार-बार सूजन होने की वजह से यह रोग मरीज और उसके पारिवारिक सदस्यों के लिए एक चिन्ताजनक रोग है।
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम में किडनी पर क्या कुप्रभाव पडता है? सरल भाषा में यह कहा जा सकता है की किडनी शरीर में छन्नी का काम करती है, जिसके द्वारा शरीर के अनावश्यक उत्सर्जी पदार्थ अतिरिक्त पानी पेशाब द्वारा बाहर निकल जाता है।


नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम में किडनी के छन्नी जैसे छेद बड़े हो जाने के कारण अतिरिक्त पानी और उत्सर्जी पदार्थों के साथ-साथ शरीर के लिए आवश्यक प्रोटीन भी पेशाब के साथ निकल जाता है, जिससे शरीर में प्रोटीन की मात्रा कम हो जाती है और शरीर में सूजन आने लगती है।
पेशाब में जानेवाले प्रोटीन की मात्रा के अनुसार रोगी के शरीर में सूजन में कमी या वृध्दि होती है। नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम में सूजन होने के बाद भी किडनी की अनावश्यक पदार्थों को दूर करने की कार्यक्षमता यथावत बनी रहती है अर्थात किडनी ख़राब होने की संभावना बहुत कम रहती है।

* नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम किस कारण से होता है?
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम होने का कोई निश्चित कारण नहीं मिल पाया है। श्वेतकणों में लिम्फोसाइट्स के कार्य की खामी (Auto Immune Disease) के कारण यह रोग होता है ऐसी मान्यता है। आहार में परिवर्तन या दवाइँ को इस रोग के लिए जिम्मेदार मानना बिलकुल गलत मान्यता है।
इस बीमारी के 90% मरीज बच्चे होते हैं जिनमें नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम का कोई निश्चित कारण नहीं मिल पाता है। इसे प्राथमिक या इडीओपैथिक नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम भी कहते हैं। (सामान्यतः नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम दो से आठ साल की उम्र के बच्चों में ज्यादा पाया जाता है।)प्राथमिक नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम चार महत्वपूर्ण पैथोलाजिकल रोगों के कारण हो सकता है। मिनीमल चेन्ज डिजीज (MCD), फोकल सेग्मेंन्टल ग्लोमेरुलोस्केलेरोसिस (FSGS), मेम्ब्रेनस नेफ्रोपेथी और मेम्ब्रेनोप्रोलिफरेटिव ग्लोमेंरुलो नेफ्राइटिस (MPGN)। प्राथमिक नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम एक विशेष निदान है जिससे सेकेंडरी करणों के एक-एक कर हटाने के बाद ही इनका निदान होता है।
इसके 10 % से भी कम मामलों में नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम वयस्कों में अलग-अलग बीमारियों/करणों की वजह से हो सकता है। जैसे संक्रमण, किसी दवाई से हुआ नुकसान, कैंसर, वंशानुगत रोग, मधुमेह, एस. एल. ई. और एमाइलॉयडोसिस आदि में यह सिंड्रोम उपरोक्त बीमारियों के कारण हो सकता है।

एम. सी. डी. अर्थात् मिनीमल चेन्ज डिजीज, बच्चों में नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम का सबसे आम कारण है। यह रोग 35 प्रतिशत छोटे बच्चों में (छः साल की उम्र तक) और 65 % मामलों में बड़े बच्चों में इडियोपैथिक (बिना किसी कारण) नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम में होता है।
एम. सी. डी. (मिनीमल चेन्ज डिजीज) के रोगी में रक्तचाप सामान्य रहता है, लाल रक्त कोशिकाएं, पेशाब में अनुपस्थित रहती है और सीरम क्रीएटिनिन और कॉम्प्लीमेंट C3 / C4 के मूल्य सामान्य रहते हैं। नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम के सभी कारणों में एम. सी. डी सबसे कम खराब बीमारी है। 90 % रोगी स्टेरॉयड उपचार से ही ठीक हो जाते हैं।

* नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम के मुख्य लक्षण :
यह रोग मुख्यतः दो से छः साल के बच्चों में दिखाई देता है। अन्य उम्र के व्यक्तियों में इस रोग की संख्या बच्चों की तुलना में बहुत कम दिखाई देती है।

आमतौर पर इस रोग की शुरुआत बुखार और खाँसी के बाद होती है।

रोग की शुरुआत के खास लक्षणों में आँखों के नीचे एवं चेहरे पर सूजन दिखाई देती है। आँखों पर सूजन होने के कारण कई बार मरीज सबसे पहले आँख के डॉक्टर के पास जाँच के लिए जाते हैं।
यह सूजन जब मरीज सोकर सुबह उठता है तब ज्यादा दिखती है, जो इस रोग की पहचान है। यह सूजन दिन के बढ़ने के साथ धीरे-धीरे कम होने लगती है और शाम तक बिलकुल कम हो जाती है।
रोग के बढ़ने पर पेट फूल जाता है, पेशाब कम होता है, पुरे शरीर में सूजन आने लगती है और वजन बड़ जाता है।
कई बार पेशाब में झाग आने और जिस जगह पर पेशाब किया हो, वहाँ सफेद दाग दिखाई देने की शिकायत होती है।
इस रोग में लाल पेशाब होना, साँस फूलना अथवा खून का दबाव बढ़ना जैसे कोई लक्षण नहीं दिखाई देते हैं।

नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम में कौन से गंभीर खतरे उत्पन्न हो सकते हैं?
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम में जो संभावित जटिलताएं होती है, जल्दी संक्रमण होना, नस में रक्त के थक्के जमना (डीप वेन थ्रोम्बोसिस), रक्ताल्पता, बढ़े हुए कोलेस्ट्रोल और ट्राइग्लिसराइड्स के कारण ह्रदय रोग होना, किडनी खराब होना आदि महत्वपूर्ण है।

नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम का निदान :
उन रोगियों में, जिन्हें शरीर में सूजन है उनके लिए पहला चरण है नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम का निदान करना। प्रयोगशाला परीक्षण से इसकी पुष्टि करनी चाहिए।
पेशाब में अधिक मात्रा में प्रोटीन जाना।
रक्त में प्रोटीन स्तर कम होना।
कोलेस्ट्रोल के स्तर का बढ़ा होना।


* पेशाब की जाँच :
पेशाब में अधिक मात्रा में प्रोटीन जाना यह नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम के निदान की सबसे महत्वपूर्ण निशानी है।
पेशाब में श्वेतकणों, रक्तकणों या खून का नहीं जाना इस रोग के निदान की महत्वपूर्ण निशानी है।
24 घण्टों में पेशाब में जानेवाले प्रोटीन की कुल मात्रा 3 ग्राम से अधिक होती है।
24 घंटे में शरीर से जो प्रोटीन कम हुआ है, उसका अनुमान 24 घंटे का पेशाब का संग्रह करके लगाया जा सकता है। इससे भी ज्यादा सरल है स्पॉट प्रोटीन/क्रीएटिनिन रेश्यो। इन परीक्षणों से प्रोटीन के नुकसान की मात्रा का सटीक माप प्राप्त होता है। इन परीक्षणों से पता चलता है की प्रोटीन का नुकसान हल्की, मध्यम या भारी मात्रा में हुआ है। इसके निदान के अलावा 24 घंटे की पेशाब में संभावित प्रोटीन की जाँच से इस बीमारी में उपचार के पश्चात् कितना सुधार हुआ है, यह भी जाना जा सकता है। उपचार के लिए इस पर नजर रखना अति उपयोगी है।पेशाब की जाँच सिर्फ रोग के निदान के लिए नहीं परन्तु रोग के उपचार कर नियमन के लिए भी विशेष महत्वपूर्ण है। पेशाब में जानेवाला प्रोटीन यदि बंद हो जाए, तो यह उपचार की सफलता दर्शाता है।


* खून की जाँच :
सामान्य जाँच : अधिकांश मरीजों में हीमोग्लोबिन, श्वेतकणों की मात्रा इत्यादि की जाँच आवश्कतानुसार की जाती है। निदान के लिए जरुरी जाँच: नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम के निदान के लिये खून की जाँच में प्रोटीन (एल्ब्यूमिन) कम होना और कोलेस्ट्रोल बढ़ जाना आवश्यक है। सामान्यतः खून की जाँच क्रीएटिनिन की मात्रा सामान्य पाई जाती है। अन्य विशिष्ट जाँच: डॉक्टर द्वारा आवश्कतानुसार कई बार करायी जानेवाली खून की विशिष्ट जाँचों में कोम्पलीमेंट, ए. एस. ओ. टाइटर, ए. एन. ए. टेस्ट, एड्स की जाँच, हिपेटाइटिस – बी की जाँच वगैरह का समावेश होता है। 2. रेडियोलॉजिकल जाँच : एस परीक्षण में पेट और किडनी की सोनोग्राफी, छाती का एक्सरे वगैरह शामिल होते हैं। किडनी की बायोप्सीनेफ्रोटिक सिन्ड्रोम के सही कारण और अंर्तनिहित प्रकार को पहचानने में किडनी की बायोप्सी सबसे महत्वपूर्ण परीक्षण है। किडनी बायोप्सी में किडनी के ऊतक का एक छोटा सा नमूना लिया जाता है और प्रयोगशाला में इसकी माइक्रोस्कोप द्वारा जाँच की जाती है|


नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम का उपचार :
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम में उपचार का लक्ष्य है मरीज को लक्षणों से राहत दिलवाना, पेशाब में जो प्रोटीन का नुकसान हो रहा है, उसमें सुधार लाना, जटिलताओं को रोकना और उनका इलाज करना और किडनी को बचाना है। इस रोग का उपचार आमतौर पर एक लंबी अवधि या कई वर्षों तक चलता है।
शरीर में सूजन, पेशाब में प्रोटीन, खून में कम प्रोटीन और कोलेस्ट्रोल का बढ़ जाना नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम की निशानी है।पेशाब की जाँच नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम के निदान और उपचार के नियमन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।संक्रमण की वजह से नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम में सूजन बार-बार हो सकती है, इसलिए संक्रमण न होने की सावधानी महत्वपूर्ण है


आहार में परहेज करना : 
सुजन हो और पेशाब कम आ रहा हो, तो मरीज को कम पानी और कम नमक लेने की सलाह दी जाती है। अधिकांश बच्चों को प्रोटीन सामान्य मात्रा में लेने की सलाह दी जाती है।
आहार में सलाह : मरीज के लिए आहार में सलाह या प्रतिबंध लगाते जाते हैं वो विभिन्न प्रकार के होते हैं। प्रभावी उपचार एवं उचित आहार से सूजन खत्म हो जाती है।

सूजन की मौजुदगी में :
 उन मरीजों को जिन्हें शरीर में सूजन है, उन्हें आहार में नमक में कमी और टेबल नमक में प्रतिबंध और वह भोज्य सामग्री जिसमें सोडियम की मात्रा अधिक हो, उन पर प्रतिबंध लगाना चाहिए जिससे शरीर में सूजन और तरल पदार्थों को शरीर में जमा होने से रोका जा सके। वैसे इस बीमारी में तरल पदार्थों पर प्रतिबंध की आवश्यकता नहीं है|

सूजन न होने वाले मरीज : 
जिन रोगियों को प्रतिदिन स्टेरॉयड की उच्च मात्रा की खुराक मिलती है, उन्हें नमक की मात्रा सिमित करनी चाहिए जिससे रक्तचाप बढ़ने का जोखिम न हो । जिन मरीजों को सूजन है उन्हें पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन दिया जाना चाहिए जिससे प्रोटीन का जो नुकसान होता है उसकी भरपाई हो सके और कुपोषण से बचाया जा सके। पर्याप्त मात्रा में कैलोरी और विटामिन्स भी मरीजों को देना चाहिए|


*लक्षण मुक्त मरीज (Remission) :
लक्षण मुक्त अवधि के दौरान सामान्य, स्वस्थ आहार लेने की सलाह दी जाती है।
आहार पर अनावश्यक प्रतिबंध हटाना चाहिए। नमक और तरल पदार्थ का प्रतिबंध न रखें। मरीज को पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन दें।
अगर किडनी डिजीज है तो प्रोटीन की मात्रा को सीमित रखें। रक्त कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रित करने के लिए आहार में वसा का सेवन कम करें।


* संक्रमण का उपचार एवं रोकथाम :
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम का विशेष उपचार शुरू करने से पहले बच्चे को यदि किसी संक्रमण की तकलीफ हो, तो ऐसे संक्रमण पर नियंत्रण स्थापित करना बहुत ही आवश्यक है।
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम से पीड़ित बच्चों को सर्दी, बुखार एवं अन्य प्रकार के संक्रमण होने की संभावना अधिक रहती है।
उपचार के दौरान संक्रमण होने से रोग बढ़ सकता है। इसलिए उपचार के दौरान संक्रमण न हो इसके लिए पूरी सावधानी रखना तथा संक्रमण होने पर तुरंत सघन उपचार कराना अत्यंत आवश्यक है।

*दवाइँ द्वारा उपचार : विशिष्ट दवा द्वारा इलाज

स्टेरॉयड चिकित्सा : 
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम में लक्षण मुक्त करने के लिए प्रेडनिसोलोन एक मानक उपचार है। अधिकांश बच्चों पर इस दवा का अनुकूल प्रभाव पड़ता है। 1 से 4 हफ्ते में सूजन और पेशाब में प्रोटीन दोनों गायब हो जाते हैं। पेशाब जब प्रोटीन से मुक्त हो जाये तो उस स्थिति को रेमिषन कहते हैं।
वैकल्पिक चिकित्सा : बच्चों का एक छोटा समूह जिन पर स्टेरॉयड चिकित्सा का अनुकूल प्रभाव नहीं हो पाता, उनकी पेशाब में प्रोटीन की मात्रा लगातार बढ़ती रहती है। ऐसे में किडनी की आगे की जाँच की आवश्यकता होती है जैसे – किडनी की बायोप्सी। उन्हें लीवामिजोल, साइक्लोफॉस्फेमाइड, साइक्लोस्पेरिन, टेक्रोलीमस, माइकोफिनाइलेट आदि वैकल्पिक दवा दी जाती है। स्टेरॉयड के साथ-साथ वैकल्पिक दवा भी दी जाती है। जब स्टेरॉयड की मात्रा कम कर दी जाती है तो ये दवा रेमिषन को बनाये रखने में सहायक होती है।
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम के मरीज बच्चे अन्य संक्रमणों से ग्रस्त हो सकते हैं। नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम में संक्रमण की रोकथाम, उसका जल्दी पता लगाना और उनका उपचार करना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि संक्रमण, नियंत्रित बीमारी को बढ़ा सकती है (तब भी जब मरीज का इलाज चल रहा हो)।
संक्रमण से बचने के लिए परिवार और बच्चे को साफ पानी पिने की और पूरी सफाई से साथ धोने की आदत डालनी चाहिए। भीड़ भरे इलाके संक्रामक रोगियों के संपर्क में आने से बचना चाहिए।
जब स्टेराइड का कोर्स पूरा हो चूका हो तब नियमित टीकाकरण की सलाह देनी चाहिए।


* निगरानी और जाँच करना :
संभवतः नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम एक लम्बे समय तक (कई वर्षों) तक रहता है। इसलिए यह आवश्यक है की डॉक्टर की सलाह के अनुसार इसकी नियमित जाँच पड़ताल होनी चाहिए। जाँच के दौरान डॉक्टर के द्वारा मरीज के पेशाब में प्रोटीन की हानि, वजन रक्तचाप, दवा के दुष्प्रभाव और किसी भी प्रकार की जटिलता का मूल्यांकन किया जाता है।
10 आम आदतें, जो किडनी खराब करती हैं:
1. पेशाब आने पर करने न जाना
2. रोज 7-8 गिलास से कम पानी पीना
3. बहुत ज्यादा नमक खाना
4. हाई बीपी के इलाज में लापरवाही बरतना
5. शुगर के इलाज में कोताही करना
6. बहुत ज्यादा मीट खाना
7. ज्यादा मात्रा में पेनकिलर लेना
8. बहुत ज्यादा शराब पीना
9. पर्याप्त आराम न करना
10. सॉफ्ट ड्रिंक्स और सोडा ज्यादा लेना

नोट: किसी को भी दवाओं को लेकर एक्सपेरिमेंट नहीं करना चाहिए। बहुत-सी दवाएं, खासकर आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओं में लेड और पोटैशियम ज्यादा मात्रा में होता है, जो किडनी के लिए बेहद नुकसानदेह साबित होता है।

किडनी की बीमारी से बचने के उपाय - 
रोज 8-10 गिलास पानी पीएं। - फल और कच्ची सब्जियां ज्यादा खाएं। - अंगूर खाएं क्योंकि ये किडनी से फालतू यूरिक एसिड निकालते हैं। - मैग्नीशियम किडनी को सही काम करने में मदद करता है, इसलिए ज्यादा मैग्नीशियम वाली चीजें जैसे कि गहरे रंग की सब्जियां खाएं। - खाने में नमक, सोडियम और प्रोटीन की मात्रा घटा दें। - 35 साल के बाद साल में कम-से-कम एक बार ब्लड प्रेशर और शुगर की जांच जरूर कराएं। - ब्लड प्रेशर या डायबीटीज के लक्षण मिलने पर हर छह महीने में पेशाब और खून की जांच कराएं। - न्यूट्रिशन से भरपूर खाना, रेग्युलर एक्सरसाइज और वजन पर कंट्रोल रखने से भी किडनी की बीमारी की आशंका को काफी कम किया जा सकता है।
किडनी के मरीज खाने में रखें ख्याल किसी शख्स की किडनी कितना फीसदी काम कर रही है, उसी के हिसाब से उसे खाना दिया जाए तो किडनी की आगे और खराब होने से रोका जा सकता है :
1. प्रोटीन : 1 ग्राम प्रोटीन/किलो मरीज के वजन के हिसाब से लिया जा सकता है। नॉनवेज खानेवाले 1 अंडा, 30 ग्राम मछली, 30 ग्राम चिकन और वेज लोग 30 ग्राम पनीर, 1 कप दूध, 1/2 कप दही, 30 ग्राम दाल और 30 ग्राम टोफू रोजाना ले सकते हैं।
2. कैलरी : दिन भर में 7-10 सर्विंग कार्बोहाइड्रेट्स की ले सकते हैं। 1 सर्विंग बराबर होती है - 1 स्लाइस ब्रेड, 1/2 कप चावल या 1/2 कप पास्ता।
3. विटामिन : दिन भर में 2 फल और 1 कप सब्जी लें।
4. सोडियम : एक दिन में 1/4 छोटे चम्मच से ज्यादा नमक न लें। अगर खाने में नमक कम लगे तो नीबू, इलाइची, तुलसी आदि का इस्तेमाल स्वाद बढ़ाने के लिए करें। पैकेटबंद चीजें जैसे कि सॉस, आचार, चीज़, चिप्स, नमकीन आदि न लें।
5. फॉसफोरस : दूध, दूध से बनी चीजें, मछली, अंडा, मीट, बीन्स, नट्स आदि फॉसफोरस से भरपूर होते हैं इसलिए इन्हें सीमित मात्रा में ही लें। डॉक्टर फॉसफोरस बाइंडर्स देते हैं, जिन्हें लेना न भूलें।
6. कैल्शियम : दूध, दही, पनीर, टोफू, फल और सब्जियां उचित मात्रा में लें। ज्यादा कैल्शियम किडनी में पथरी का कारण बन सकता है।
7. पोटैशियम : फल, सब्जियां, दूध, दही, मछली, अंडा, मीट में पोटैशियम काफी होता है। इनकी ज्यादा मात्रा किडनी पर बुरा असर डालती है। इसके लिए केला, संतरा, पपीता, अनार, किशमिश, भिंडी, पालक, टमाटर, मटर न लें। सेब, अंगूर, अनन्नास, तरबूज़, गोभी ,खीरा , मूली, गाजर ले सकते हैं।
8. फैट : खाना बनाने के लिए वेजिटबल या ऑलिव ऑयस का ही इस्तेमाल करें। बटर, घी और तली -भुनी चीजें न लें। फुल क्रीम दूध की जगह स्किम्ड दूध ही लें।
9. तरल चीजें : शुरू में जब किडनी थोड़ी ही खराब होती है तब सामान्य मात्रा में तरल चीजें ली जा सकती हैं, पर जब किडनी काम करना कम कर दे तो तरल चीजों की मात्रा का ध्यान रखें। सोडा, जूस, शराब आदि न लें। किडनी की हालत देखते हुए पूरे दिन में 5-7 कप तरल चीजें ले सकते हैं।
10. सही समय पर उचित मात्रा में जितना खाएं, पौष्टिक खाएं।

खाने में इनसे करें परहेज -
 फलों का रस, कोल्ड ड्रिंक्स, चाय-कॉफी, नीबू पानी, नारियल पानी, शर्बत आदि। - सोडा, केक और पेस्ट्री जैसे बेकरी प्रॉडक्ट्स और खट्ट‌ी चीजें। - केला, आम, नीबू, मौसमी, संतरा, आडू, खुमानी आदि। - मूंगफली, बादाम, खजूर, किशमिश और काजू जैसे सूखे मेवे। - चौड़ी सेम, कमलककड़ी, मशरूम, अंकुरित मूंग आदि। - अचार, पापड़, चटनी, केचप, सत्तू, अंकुरित मूंग और चना। - मार्केट के पनीर के सेवन से बचें। बाजार में मिलने वाले पनीर में नींबू, सिरका या टाटरी का इस्तेमाल होता है। इसमें मिलावट की भी गुंजाइश रहती है।

कैसे तैयार करें खाना- 
 वेजिटेबल ऑयल और घी आदि बदल-बदल कर इस्तेमाल करें। - घर पर ही नीबू के बजाय दही से डबल टोंड दूध फाड़कर पनीर बनाएं। - खाना पकाने से पहले दाल को कम-से-कम दो घंटे और सब्जियों को एक घंटे तक गुनगुने पानी में रखें। इससे उनमें पेस्टिसाइड्स का असर कम किया जा सकता है। -महीने में एकाध बार लीचिंग प्रक्रिया अपनाकर घर में छोले और राजमा भी खा सकते हैं, पर इसकी तरी के सेवन से बचें। -नॉनवेज खानेवाले रेड मीट का सेवन नहीं करें। चिकन और मछली भी एक सीमित मात्रा में ही खाएं। -रोजाना कम-से-कम दो अंडों का सफेद हिस्सा खाने से जरूरी मात्रा में प्रोटीन मिलता है।


शुरुआती लक्षण - 
पैरों और आंखों के नीचे सूजन - चलने पर जल्दी थकान और सांस फूलना - रात में बार-बार पेशाब के लिए उठना - भूख न लगना और हाजमा ठीक न रहना - खून की कमी से शरीर पीला पड़ना
नोट: इनमें से कुछ या सारे लक्षण दिख सकते हैं।

देर से पता लगती है बीमारी

पहली स्टेज:
पेशाब में कुछ गड़बड़ी पता चलती है लेकिन क्रिएटनिन और ईजीएफआर (ग्लोमेरुलर फिल्टरेशन रेट) सामान्य होता है। ईजीएफआर से पता चलता है कि किडनी कितना फिल्टर कर पा रही है।

दूसरी स्टेज:
 ईजीएफआर 90-60 के बीच में होता है लेकिन क्रिएटनिन सामान्य ही रहता है। इस स्टेज में भी पेशाब की जांच में प्रोटीन ज्यादा होने के संकेत मिलने लगते हैं। शुगर या हाई बीपी रहने लगता है।

तीसरी स्टेज: 
ईजीएफआर 60-30 के बीच में होने लगता है, वहीं क्रिएटनिन भी बढ़ने लगता है। इसी स्टेज में किडनी की बीमारी के लक्षण सामने आने लगते हैं। अनीमिया हो सकता है, ब्लड टेस्ट में यूरिया ज्यादा आ सकता है। शरीर में खुजली होती है। यहां मरीज को डॉक्टर से सलाह लेकर अपना लाइफस्टाइल सुधारना चाहिए।

चौथी स्टेज: 
ईजीएफआर 30-15 के बीच होता है और क्रिएटनिन भी 2-4 के बीच होने लगता है। यह वह स्टेज है, जब मरीज को अपनी डायट और लाइफस्टाइल में जबरदस्त सुधार लाना चाहिए नहीं तो डायलिसिस या ट्रांसप्लांट की स्टेज जल्दी आ सकती है। इसमें मरीज जल्दी थकने लगता है। शरीर में कहीं सूजन आ सकती है।

पांचवीं स्टेज :
ईजीएफआर 15 से कम हो जाता है और क्रिएटनिन 4-5 या उससे ज्यादा हो जाता है। फिर मरीज के लिए डायैलसिस या ट्रांसप्लांट जरूरी हो जाता है।

विशेष- शुरुआती स्टेज में किडनी की बीमारी को पकड़ना बहुत मुश्किल है क्योंकि दोनों किडनी के करीब 60 फीसदी खराब होने के बाद ही खून मे क्रिएटनिन बढ़ना शुरू होता है।

क्या है इलाज
इस बीमारी के इलाज को मेडिकल भाषा में रीनल रिप्लेसमेंट थेरपी (RRT) कहते हैं। किडनी खराब होने पर फाइनल इलाज तो ट्रांसप्लांट ही है, लेकिन इसके लिए किडनी डोनर मिलना मुश्किल है, इसलिए इसका टेंपररी हल डायलिसिस है। यह लगातार चलनेवाले प्रोसेस है और काफी महंगा है।

क्या है डायलिसिस
खून को साफ करने और इसमें बढ़ रहे जहरीले पदार्थों को मशीन के जरिए बाहर निकालना ही डायैलसिस है। डायैलसिस दो तरह की होती है:

1. हीमोडायलिसिस : 
सिर्फ अस्पतालों में ही होती है। तय मानकों के तहत अस्पताल में किसी मरीज की हीमोडायैलसिस में चार घंटे लगते हैं और हफ्ते में कम-से-कम दो बार इसे कराना चाहिए। इसे बढ़ाने या घटाने का फैसला डॉक्टर ही कर सकते हैं।

2. पेरीटोनियल :
पानी से डायलिसिस घर पर की जा सकती है। इसके लिए पेट में सर्जरी करके वॉल्व जैसी चीज डाली जाती है। इसका पानी भी अलग से आता है। डॉक्टर घर में किसी को करना सिखा देते हैं। यह थोड़ी कम खर्चीली है लेकिन इसमें सफाई का बहुत ज्यादा ध्यान रखना होता है, वरना इन्फेक्शन हो सकता है।

कैसे होती है हीमोडायलिसिस
इमरजेंसी में मरीज की गर्दन के निचले हिस्से में कैथेटर डालकर या फिर जांघ की ब्लड वेसल्स में फेमोरल प्रक्रिया से डायैलसिस की जाती है। रेग्युलर डायलिसिस के लिए मरीज की बाजू में सर्जरी करके 'एवी फिस्टुला' बनाया जाता है ताकि बगैर किसी परेशानी के डायलिसिस की जा सके। एवी फिस्टुला में आर्टरी को नाड़ी से जोड़ा जाता है। इस तरह से बनाए गए फिस्टुला को काम करने लायक होने में 8 हफ्ते लगते हैं। फिस्टुला डायलिसिस कराने वाले मरीजों की लाइफलाइन है, इसलिए इसकी हिफाजत बहुत जरूरी है। ध्यान रखें कि जिस हाथ में फिस्टुला बना है, उससे न तो बीपी नापा जाए और न ही जांच के लिए खून निकाला जाए। इस हाथ में इंजेक्शन भी नहीं लगवाना चाहिए। यह हाथ न तो दबना चाहिए और न ही इससे भारी सामान उठाना चाहिए। अगर एवी फिस्टुला सही समय पर बन जाए तो मरीज के लंबे समय तक जीवित रहने की संभावना बढ़ जाती है।

किडनी की समस्या से जूझ रहे मरीज की हफ्ते में 8 से 12 घंटे डायैलसिस होनी चाहिए। चूंकि आमतौर पर एक बार में चार घंटे की डायैलसिस होती है, इसलिए मरीज की सेहत को ध्यान में रखते हुए डॉक्टर उसे हफ्ते में दो बार या हर तीसरे/ दूसरे दिन डालसिसिस कराने की सलाह देते हैं। मरीज को अपनी मर्जी से दो डायलिसिस के बीच का फर्क नहीं बढ़ाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने पर कभी-कभी बड़ी परेशानी पैदा हो जाती है और मरीज आईसीयू तक में पहुंच जाता है।

खून की नियमित जांच जरूरी
* डायलिसिस कराने वाले मरीजों को महीने में कम-से-कम एक बार खून की जांच (KFT) करानी चाहिए। इस जांच से मरीज के शरीर में हीमोग्लोबीन, ब्लड यूरिया, क्रिएटनिन, पोटैशियम, फॉस्फोरस और सोडियम की मात्रा का पता लगता है।
*हालात के अनुसार समय-समय पर डॉक्टर मरीज के खून की जांच के जरिए शरीर में पीटीएच, आयरन और बी-12 आदि की भी जांच करते हैं। - हर डायैलसिस यूनिट अपने मरीजों से हर छह महीने पर एचआईवी, हैपेटाइटिस बी और सी के लिए खून की जांच कराने का अनुरोध करती है।
* अगर किसी मरीज की रिपोर्ट से उसके एचआईवी, हैपेटाइटिस बी या सी से प्रभावित होने का संकेत मिलता है तो उसकी डायैलसिस में खास सावधानी बरती जाती है। ऐसे मरीज की डायैलसिस में हर बार नए डायैलजर का इस्तेमाल होता है ताकि कोई दूसरा मरीज इस इन्फेक्शन की चपेट में न आ सके।

बरतें ये सावधानियां
*डायलिसिस कराने वालों को लिक्विड चीजें कम लेनी चाहिए। किडनी खराब होने पर खून की सफाई के प्रॉसेस में रुकावट आती है और आमतौर पर मरीज को पेशाब भी कम आने लगता है, इसलिए उन्हें सीमित मात्रा में लिक्विड चीजें लेनी चाहिए।
*लिक्विड चीजों में पानी के अलावा दूध, दही, चाय, कॉफी, आइसक्रीम, बर्फ और दाल-सब्जियों की तरी भी शामिल हैं। यही नहीं, रोटी, चावल और ब्रेड आदि में भी पानी होता है।
*लिक्विड पर कंट्रोल रखने से दो डायलिसिस के बीच में मरीज का वजन (जिसे वेट गेन या वॉटर रिटेंशन भी कहते हैं) अधिक नहीं बढ़ता। दो डायलिसिस के बीच में ज्यादा वजन बढ़ने से डायलिसिस का प्रॉसेस पूरा होने पर कई बार कमजोरी या चक्कर आने की शिकायत भी होने लगती है।
* किडनी के मरीज को डायटीशियन से भी जरूर मिलना चाहिए क्योंकि इस बीमारी में खानपान पर कंट्रोल बहुत जरूरी है।
* किडनी के जो मरीज डायलसिस पर नहीं हैं, उन्हें कम प्रोटीन और डायलसिस कराने वाले मरीजों को ज्यादा प्रोटीन की जरूरत होती है। लेकिन खानपान की पूरी जानकारी डायट एक्सपर्ट ही दे सकते हैं।
*डायलिसिस कराने वाले रोगी को  कोई भी दवा लेने से पहले अपने किडनी एक्सपर्ट (नेफ्रॉलजिस्ट) से सलाह जरूरी है। नोट: किडनी की बीमारी सुनकर जिंदगी खत्म होने की बात सोचना गलत है क्योंकि अगर खानपान और रुटीन में सावधानी बरती जाए तो डायलसिस कराते हुए भी लंबी जिंदगी का आनंद लिया जा सकता है। मरीज को घर-परिवार, रिश्तेदारों और दोस्तों का पूरा साथ मिलना जरूरी है ताकि वह उलट परिस्थितियों का ज्यादा संयम के साथ सामना कर सके।


लिक्विड का सेवन ऐसे कम करें
डायलिसिस कराने वाला रोगी  नीचे लिखे तरीकों से लिक्विड का सेवन कम कर सकता है:
*गर्मियों में 500 एमएल की कोल्ड ड्रिंक की बोतल में पानी भरके उसे फ्रीजर में रख लें। यह बर्फ बन जाएगा और फिर इसका धीरे-धीरे सेवन करें।
*फ्रिज में बर्फ जमा लें और प्यास लगने पर एक टुकडा मुंह में रखकर घुमाएं और फिर उसे फेंक दें।
* गर्मियों में रुमाल भिगोकर गर्दन पर रखने से भी प्यास पर काबू पाया जा सकता है।
*घर में छोटा कप रखें और उसी में पानी लेकर पीएं।
*खाना खाते समय दाल और सब्जियों की तरी का सेवन कम-से-कम करने की कोशिश करें।



आयुर्वेद

बीमारी की वजह के आधार पर ही जरूरी दवा खाने की सलाह दी जाती है:
*चूंकि किडनी का काम शरीर में खून की सफाई करना और जहरीली चीजों को बाहर निकालना होता है। इलाज के दौरान मरीज के खानपान को सुधारने के साथ ही उसके बीपी और शुगर को कंट्रोल में रखने पर खास ध्यान दिया जाता है।
*वरुण, पुनर्नवा, अर्जुन, वसा, कातुकी, शतावरी, निशोध, कांचनार, बाला, नागरमोथा, भबमिआमलकी, सारिवा, अश्वगंधा और पंचरत्नमूल आदि दवाओं का इस्तेमाल किडनी के इलाज में किया जाता है।
* किडनी की बीमारी का लगातार इलाज जरूरी है और यह ताउम्र चलता है। किडनी की बीमारी का इलाज से ज्यादा मैनेजमेंट होता है।


किडनी रोग मे खाने योग्य -

सब्जियां :- यदि आपको किडनी की बीमारी है तो आप घिया , तोरी , टिंडा , परवल , धनिया ,सहिजन इत्यादि हरी सब्जियों का सेवन करे, हमेशा ध्यान रखे की तरीदार सब्जी ही प्रयोग करे , सेम की फली गाजर का जूस , कच्चा पपीता , कच्चा केला , पेठा और ककड़ी आदि सब्जियों का खाने में प्रयोग करे |

पेय पदार्थ :- नारियल का पानी , जों का पानी ,पत्थरचट्टे का पत्ता , गेहूं के जवारे , बकरी का दूध , पानी को उबालकर पीयें , गाय के दूध की लस्सी , और दही लेकिन इनका प्रयोग कम मात्रा में करें |

फल :- सेब , अमरुद , पक्का हुआ आम , नागकेशर पुनर्नवा और सोंफ आदि फलों का सेवन करें|

जिन चीजों से परहेज करना है :-

त्यागें:- आलू , पालक , चौलाई का साग , गोभी , मशरूम , बैंगन , अदरक , टमाटर , हरी मिर्च ,मटर आदि | इसके आलावा लाल मिर्च , खट्टी चीजें , जरूरत से ज्यादा व्यायाम करना , दही का उपयोग इस बीमारी में नहीं करना चाहिए | दालों में हमे चना , राजमा , काजू , और उड़द की दाल ,का इस्तेमाल करना हमारे शरीर के लिए हानिकारक हो सकता है |
नोट :- इस रोग से पीड़ित मनुष्य को कभी – भी शराब और मांस – मछली का प्रयोग तो बिल्कुल नहीं करना चाहिए | नमक की मात्रा भी कम दें |


होम्यॉपथी
लक्षणों के आधार पर कॉलि-कार्ब 200, एपिस-मेल-30, एसिड बेंजोक, टेरीबिंथ,बर्बेरिस वल्गरीस, लेसीथिन, फेरम मेट और चाइना जैसी दवाएं दी जाती हैं। थकान और कमजोरी दूर करने के लिए अल्फाल्फा टॉनिक भी दिया जाता है।

नोट: होम्यॉपथी डायैलसिस बंद कराने में सक्षम नहीं है लेकिन यह ऐसे मरीजों की सहायक जरूर है। ऐलोपैथी दवाओं के साथ ही होम्योपैथी दवाओं के सेवन से मरीज ज्यादा सेहतमंद रह सकता है।


नेचरॉपथी
* किडनी की क्षमता बढ़ाने के लिए नेचरोपैथी में मरीज को सलाद, फल आदि कुदरती चीजें लेने को कहा जाता है। इससे किडनी की सफाई शुरू होती है और उसे आराम भी मिलता है।
* किडनी की जगह पर सूती कपड़े की पट्टी को ताजे पानी में भिगोकर रोजाना आधे घंटे लगाते हैं। ऐसा करने से किडनी की तरफ के शरीर का तापमान कम होता है और उस ओर खून का दौरा बढ़ता है।
* इसी तरह किडनी की जगह पर गर्म और ठंडे पानी से सिकाई करते हैं। इसे भी रोजाना आधे घंटे के लिए कर सकते हैं। इससे किडनी में खून का दौरा बढ़ता है।
* धूप स्नान के जरिए सुबह-सुबह किडनी पर सूरज की सीधी किरणों से इलाज किया जाता है और किडनी की सफाई होती है।
*मरीज को एक टब में बिठाकर उसकी नाभि तक पानी रखा जाता है। यह क्रिया आधे घंटे तक की जाती है। कटिस्नान से भी किडनी की ओर खून का दौरा बढ़ता है।
योग
*रोजाना कम-से-कम 20 मिनट तक अनुलोम-विलोम करना चाहिए।
* गलत लाइफस्टाइल और बुरी आदतों को छोड़ दें तो किडनी के साथ-साथ दूसरी बीमारियों से भी बचने की संभावना काफी बढ़ जाती है।

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